03 फरवरी 1936 – 08 सितंबर 2022
प्रो कैलाश कुमार झा : प्रोफेसर डा वेदनाथ झा, दिखने में एक सामान्य से कद-काठी के व्यक्ति, ललाट पर तेज सूर्य की लालिमा, जिव्हा में सरस्वती का वास, भावों में गंगा की शीतलता, विचारों में वायु की तीव्रता, मैथिली साहित्य के प्रमुख स्तंभ का जन्म 3 फरवरी 1936 को एक सामान्य या यूं कहें कि आर्थिक बदहाली झेल रहे एक अति सामान्य परिवार में हुआ था। जीवन के पूर्वाद्ध में सिर्फ संघर्ष रहा। सफलता मुठ्ठी में बंधे रेत की तरह फिसलती रही। परंतु संघर्ष के समय जिस चीज की सबसे ज्यादा आवश्यकता होती है वह है संयम, जोकि उनमें आजन्म रहा। संयमित इतने थे कि मृत्यु भी बहुत संयम के साथ कई प्रकार के शारीरिक बीमारियों से संघर्ष के उपरांत उन तक पहुंचने में सफल हुई। जितनी सामान्य उनकी शारीरिक संरचना थी उतना ही विशाल उनका आभा मंडल था। जब बोलते तो सुनने वालों को लगता कि मानो कोई कानों के कोयल की कूक उड़ेल रहा हो।
व्यंग्य में प्रखरता और संवाद का बेजोड़ मिश्रण। कहने को वह मैथिली के व्याख्याता थे परंतु जितनी पकड़ उनकी मैथिली साहित्य पर रही उतना ही नियंत्रण हिंदी, अंग्रेजी एवं संस्कृति भाषा साहित्य पर भी उनका था।
हालांकि अपने पीछे वो एक भरा-पूरा परिवार छोड़ गए हैं, परंतु उनका जाना एक शून्य पैदा कर गया। व्यक्तिगत तौर पर मैं, मेरे बड़े भायजी उनसे बहुत ज्यादा प्रभावित रहा हूं।
हम जब भी अपनी असफलताओं से उद्वेलित होते तो वह अपने संघर्ष की कहानी सुनाया करते थे। कैसे वह प्रतिदिन कोसों पैदल चलकर अपने कार्यस्थल पर जाते और जब आधा गांव सो गया रहता तो वापस आते। यह सब सुनकर हमें हमारे भरोसे को बल मिलता था। जब भी किसी परीक्षा में पास होता तो उनके पास जाता और सकुचाते हुए कहता कि द्वितीय श्रेणी में पास हुआ है। वह अक्सर कहते- मैं थर्ड डिवीजन से मैट्रिक पास हूं वो भी तीसरे प्रयास में। हालांकि यह बात मेरे लिए सिर्फ एक रहस्य ही है कि क्या ये बात सही थी?
परंतु उनके तेज को देखकर मन यही कभी मानने को तैयार नहीं हुआ।
हम हमेशा यही समझते रहे कि शायद वो हमें प्रेरित कर रहे हैं कि माक्र्स आर जस्ट ए नंबर, ए पीस आफ पेपर। उनका सहयोग और आशीर्वाद हमें सदैव नि:स्वार्थ भावना से मिलता रहा। उनका जाना न सिर्फ उनके परिवार के लिए एक क्षति है, बल्कि मैथिली भाषा एवं साहित्य के स्तंभ का धाराशायी हो जाना है।
ऐसा नहीं है कि वो सिर्फ मैथिली भाषा और साहित्य के ज्ञाता थे, जितना वो विद्यापति, चंदा झा, हरिमोहन झा, को जानते थे उतनी वो शेक्सपीयर, बनार्ड शा एवं थामस हार्डी को भी जानते थे। किसी साहित्यिक कार्यक्रम में जब वे बोलना शुरू करते थे तो श्रोता अपनी जगह न छोडऩे के भाव से तब तक जमे रहते जबतक कि उनका उद्बोधन समाप्त न हो जाता हो। उनके आसन्न रहकर कई छात्र देश- विदेश में अपनी ख्याति फैला रहे। कलम की धमक ऐसी की पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं स्वतंत्रता सेनानी स्वर्गीय चतुनानन मिश्र उनसे व्यक्तिगत तौर पर मिलने आया करते थे। महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय में अपने शिक्षण काल में उनसे उच्च पदस्थ पदाधिकारी भी उनकी योग्यता का अभिवादन अपने स्थान पर खड़े होकर करते थे। छात्र उनके ज्ञान से इतने सम्मोहित रहते कि उद्यण्ड प्रवृति का छात्र भी उनके सामने शालीनता से पेश आता था। उनका शब्द चयन एवं संवाद शैली ऐसा कि सामने बैठा हर व्यक्ति सम्मोहित हो जाता। मैंने बेशक उनसे कोई किताबी ज्ञान नहीं लिया है, परंतु जीवन यात्रा में सबसे ज्यादा काम आने वाला संयम एवं संघर्ष का उनका दिया ज्ञान सदैव हमें प्रेरित करता रहेगा।
मेरी इतनी हैसियत नहीं कि उनके बारे में कुछ लिख पाऊं, परंतु उनके लिए अगर टूटे-फूटे दो शब्द भी व्यक्त नहीं करता तो शायद यह कृतज्ञता होती। मैं ये नहीं कहूंगा कि ईश्वर उनकी आत्मा को सद्गति दें, क्योंकि जिस व्यक्ति ने कई लोगों के जीवन को सही गति एवं दिशा प्रदान किया हो उसके सद्गति पर संशय कैसा…। ऊं शांति।
(लेखक प्रोफेसर कैलाश कुमार झा, डा वेदनाथ झा के ग्रामीण और समस्तीपुर के शाहपुर पटोरी स्थित एएनडी कॉलेज में सहायक प्रोफेसर के साथ अंग्रेजी के रिसर्च स्कॉलर हैं।)